1962 युद्ध में भारत की हार क्यों हुई – india china war 1962 who won in hindi

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1962 युद्ध में भारत की हार क्यों हुई : 1962 के युद्ध की हार भारत की सेना की हार नहीं बल्कि उस वक्त के राजनैतिक नेतृत्व की हार थी क्योंकि उस वक्त के राजनीतिक नेतृत्व को चीन के खतरे से ज्यादा इस बात की चिंता थी कि सेना के अधिकारियों के सामने कहीं उनका दबदबा कम ना हो जाए ।

1959 में तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल के एस थिमैया का नाम तो आपने सुना होगा जिन्होंने तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके कृष्णा मेनन के व्यवहार से दुखी होकर अपना इस्तीफा दे दिया था ।

वीके कृष्णा मेनन किसी की सुनते नहीं थे । ऐसा कहा जाता है कि प्रधानमंत्री नेहरू मेनन की कोई बात काटते नहीं थे । अगर जनरल थिमैया की बातें नेहरू और वीके कृष्णा मेनन उस समय मान लेते तो उन्नीस सौ बासठ के युद्ध का नतीजा कुछ और होता । और यदि हो सकता था कि चीन हम पर शायद हमला करने की हिम्मत करता ही नहीं ।

यह बात बड़ा टर्निंग प्वाइंट था जिसके बारे में आज पूरे देश को पता होना चाहिए । उन्नीस सौ उनसठ तक चीन ने अक्साई चिन पर अपना कब्जा काफी मजबूत कर लिया था । चीन ने मैकमोहन लाइन को भारत और चीन की अंतरराष्ट्रीय सीमा मानने से खुलेआम इनकार कर दिया था ।

वो तिब्बत को अपना अभिन्न अंग घोषित कर चुका था और उसने तिब्बत से होते हुए भारतीय सीमा तक हाईवे और सड़कें भी बना ली थीं । इनमें एक हाइवे अक्साई चिन के इलाके में बनाया गया था जो भारत की जमीन पर था और जिसे चीन ने पहले कभी विवाद का मुद्दा भी नहीं बनाया था । यानी चीन के इरादे बिल्कुल साफ साफ दिखाई दे रहे थे ।

हिंदी चीनी भाई भाई का नारा किसने दिया

लेकिन चीन के खतरे को देखने की जगह पर भारत में हिंदी चीनी भाई भाई के नारे उस समय लग रहे थे । भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू उस समय हिंदी चीनी भाई भाई के नशे में चूर थे । उन्हें सिर्फ हिंदी चीनी भाई भाई के अलावा और कुछ सुनाई नहीं दे रहा था ।

एक ही नारा उनके कानों में गूंज रहा था जनरल केस थिमैया की जीवनी थिमैया अमेजिंग लाइफ के मुताबिक राजनैतिक नेतृत्व भले ही उस वक्त हिंदी चीनी भाई भाई कह रहा था और उसके नशे में चूर था लेकिन भारतीय सेना चीन के इस बड़े खतरे को बहुत अच्छी तरह समझ रही थी । लेकिन भारतीय सेना उस समय मजबूर थी क्योंकि सेना के पास न तो तब संसाधन थे और ना ही सेना के पास पर्याप्त बजट था ।

India China war 1962

उस वक्त हमारी सेना का बजट सिर्फ 305 करोड़ रुपए था और इन मजबूरियों के बावजूद जनरल के मुखिया ने चीन के खतरे को समझा और चीन से जुड़ी सीमा पर दो युद्ध अभ्यास उन्होंने करवाए । इन युद्ध अभ्यासों से ये बात सामने आई कि चीन की सीमा पर तब उपलब्ध भारतीय सैनिकों की संख्या और सैन्य उपकरण चीन से लड़ने के लिए पर्याप्त नहीं थे । न तो हमारे सैनिक पर्याप्त थे और न ही हमारे पास हथियार थे कि हम चीन जैसी फौज से लड़ सकें ।

इससे जुड़ी सिफारिशों को तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन के पास भेजा गया लेकिन इन सिफारिशों के लिए ये सेना प्रमुख की जिम्मेदारी थी कि सीमा की रक्षा करने के लिए रणनीतिक जरूरतों के तो तब के रक्षामंत्री ने खारिज कर दिया।

जनरल के थीमैया की जीवनी के मुताबिक इस बारे में वो राजनैतिक नेतृत्व को समझाये थे । देश की लीडरशिप को समझाये ।लेकिन किसी ने सेना प्रमुख की बात नहीं सुनी । उस पर कोई ध्यान नहीं दिया । उनकी सिफारिशें नहीं मानी और देश खतरे में आ गया तो जनरल थिमैया ने सीधे प्रधानमंत्री नेहरू से मिलने की कोशिश की और उन्होंने पूरी स्थिति प्रधानमंत्री को बताने का फैसला किया ।

जनरल थिमैया की बात को नजरंदाज किया गया

क्योंकि सीमा पर चीन के रवैये को देखकर जनरल थिमैया को ये अंदाजा हो चुका था कि चीन भारतीय सीमा में घुसने का इरादा अब पक्का कर चुका है और वो सीमा के किसी भी हिस्से पर एक बड़ी घुसपैठ या हमला कभी भी कर सकता है । ये भारत के सेना प्रमुख को समझ में आ गई थी बात ।

लेकिन रक्षा मंत्री को समझ में नहीं आ रही थी और इसलिए भारत के सीमित सेना प्रमुख ने ये तय किया कि वो सीधे प्रधानमंत्री से मिलेंगे । इन्हीं खतरों को समझकर जनरल थिमैया प्रधानमंत्री नेहरू के पास चले गए । प्रधानमंत्री नेहरू को उन्होंने एक एक बात मिलकर बताई और नेहरू ने उनकी बातें सुनी भी जनरल थिमैया ने ये भी बताया कि कैसे रक्षामंत्री वीके कृष्ण मेनन सेना अध्यक्षों की राय को सीधे खारिज कर रहे हैं ।

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जनरल थिमैया ने ये भी कहा कि जनता का मनोबल बनाए रखने के लिए नेता तो कोई भी बयान दे सकते हैं लेकिन सीमा पर जो सच्चाई है उसे सेना प्रमुख होने के नाते वो छुपा नहीं सकते । इसलिए वो ये बातें आज प्रधानमंत्री को बता रहे हैं । जनरल थिमैया ने ये सलाह दी कि प्रधानमंत्री रक्षामंत्री को बुलाएं । हालात की गंभीरता के बारे में समझाएं और बताएं लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू ने जनरल थिमैया से कहा कि वो पहले रक्षा मंत्री मेनन से ही जाकर बात करें सीधे उनके पास न आएं क्योंकि सही तरीका यही है और वो  प्रोटोकॉल का पालन करें ।

प्रोटोकाल क्या होता है ?

प्रोटोकॉल क्या है कि सेना प्रमुख बिना रक्षामंत्री को बताए सीधे प्रधानमंत्री के पास नहीं जा सकता इसलिए उसे जाना तो पड़ेगा रक्षामंत्री के पास । बाद में रक्षामंत्री ने जनरल थिमैया को इस बात पर बहुत फटकार लगाई और ये यहां तक कह दिया कि बिना रक्षामंत्री की इजाजत के वो प्रधानमंत्री से मिलने क्यों गए । इन्हीं घटनाओं के बाद जनरल थिमैया ने अपना इस्तीफा देने का फैसला तब कर लिया था । सैन्य शक्ति का महत्व क्या होता है इसे सबसे अच्छा । नेताजी सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल समझते थे ।

दुर्भाग्य ये था कि आजादी के पहले ही नेताजी की मृत्यु हो गई और आजादी के तीन साल बाद सरदार पटेल का भी निधन हो गया । जवाहरलाल नेहरू के बारे में कहा जाता है कि वो सेना के मामलों को सबसे कम महत्व देते थे और कहा जाता है कि आजादी से पहले जब एक बार भारत की रक्षा नीति के बारे में उनके विचार पूछे गए तो उन्होंने कहा था कि भारत अहिंसा के विचारों पर चलता है इसलिए भारत को किसी से कोई खतरा नहीं । हम अहिंसा के रास्ते पर ही चलते रहेंगे ।

नेहरू ने यहां तक कहा था कि सेना की जरूरत ही नहीं है । भारत के लिए तो पुलिस ही काफी है लेकिन आजादी के तुरंत बाद कश्मीर पर पाकिस्तान के हमले और फिर उन्नीस सौ बासठ के युद्ध में चीन से हार ने उनके भ्रम को हमेशा के लिए तोड़ दिया था । लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी इसलिए हम आज आपसे ये कह रहे हैं कि उन्नीससौ बासठ में अगर सही फैसले लिए गए होते  1962 से कुछ वर्ष पहले सही सही फैसले लेने शुरू कर दिए होते । चीन पर हमने अंध विश्वास न किया होता । हिंदी चीनी भाई भाई के नशे में हम इतने चूर न रहे होते पर हमने उस समय जनरल थिमैया की बात मान ली होती तो शायद एक संभावना तो ये है कि चीन इतनी हिम्मत ही नहीं करता कि वो हम पर हमला करे और दूसरा ये है कि अगर हमला हो भी जाता तो हम चीन का मुकाबला और अच्छी तरह से कर सकते थे ।

1962 के युद्ध में वामपंथी जिसके साथ थे ?

1962 के युद्ध में सिर्फ सीमा पर दुश्मनी नहीं थे बल्कि हमारे घर के अंदर भी दुश्मन बैठे हुए थे । स्थिति वैसी ही थी जैसी आज है । आज भी आप जानते हैं भारत पाकिस्तान से लड़े या चीन से लड़े वो तो हमारे दुश्मन हैं लेकिन एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है जो हमारे ही देश में बैठे हैं हमारे दुश्मन हैं हमारी टीम में हैं लेकिन वो खेलते हैं पाकिस्तान के लिए । और यही स्थिति और 1962 में भी थी ।

ये दुश्मन कौन थे आज आपको जानकर हैरानी होगी । ये थे भारत के वामपंथी जो चीन के वामपंथियों को अपना भाई समझते थे और भारत चीन युद्ध में चीन का समर्थन कर रहे थे । इन लोगों का सपना था कि भारत भारत में भी कम्युनिस्ट विचारधारा का शासन होना चाहिए और चीन जो कर रहा है वो बिल्कुल ठीक कर रहा है ।

अगर चीन ने भारत पर कब्जा कर लिया तो भारत भी एक कम्युनिस्ट विचारधारा वाला देश बन जाएगा । ये सपना था जब उन्नीस सौ बासठ का युद्ध हुआ तो भारत के वामपंथियों के एक वर्ग ने ये कहते हुए चीन का समर्थन किया था किये युद्ध नहीं बल्कि एक समाजवादी देश और एक पूँजीवादी देश के बीच का संघर्ष है और ये तब हो रहा था जब भारत के वामपंथी उस वक्त देश के मुख्य विपक्षी दल थे ।

1962 युद्ध में भारत की हार क्यों हुई india china war 1962 who won in hindi

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया जिसे आप सीपीआई के नाम से जानते हैं जो आज भी हमारे देश में एक विपक्षी दल है प्रमुख विपक्षी दल है सीपीआई उस समय भी मुख्य विपक्षी पार्टी थी सीपीआई । उस वक्त पूरा देश हमलावर चीन को बाहर खदेड़ने की बात कर रहा था लेकिन भारत के वामपंथी ये मानने को तैयार नहीं थे कि सीमा पर चीन ने हमला किया है । उनका मानना था कि उग्र रवैया भारत का था और हमलावर भारत है चीन नहीं । जब पूरा देश अपनी सेना के जवानों के लिए खून दे रहा था तो हमने पार्टी ऑफ इंडिया इसका विरोध कर रही थी । सेना के जवानों को उस समय खून की बहुत जरूरत थी और खून बहुत सारे लोगों ने दिया था ।

उस समय सेना के जवानों को खून देने को सीपीआई पार्टी विरोधी गतिविधि मानती थी । उस समय यहां तक कि कई वामपंथी नेता चीन के समर्थन में रैलियां कर रहे थे ।

ज्योति बसु हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे उस वक्त के युवा नेता भी थे जिन्होंने कहा था कि चीन तो कभी हमला कर ही नहीं सकता ज्योति बसु बाद में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बने और देश के बहुत बड़े कम्युनिस्ट नेता थे और हरकिशन सिंह सुरजीत भी देश के बहुत बड़े कम्युनिस्ट नेता रहे हैं । अब दोनों ही इस दुनिया में नहीं हैं ।

1962 के युद्ध में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया यानी सीपीआई चीन का इस तरह से समर्थन कर रही थी कि ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे नेताओं को जेल में डालना पड़ा था ।

ये सच्चाई है भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी की जो आए दिन चीन और पाकिस्तान का समर्थन करती रहती है ऐसा ही इन लोगों ने तब किया यह और आज भी वही कर रहे हैं ।

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